आचार्य महाश्रमण ने संबोधि के तीसरे अध्याय में ज्ञान को लेकर बताए गए पांच बिन्दुओं की व्याख्या करते हुए श्रावक-श्राविकाओं से आहृान किया कि वे ज्ञान अर्जित करते समय दूसरे की सहायता की आकांक्षा नहीं रखें। इस तरह की प्रवृति से इंन्द्रियों पर स्वयं का नियंत्रण नहीं रहता और प्रत्यक्ष की बजाय हम केवल परोक्ष ज्ञान तक ही सीमित होेकर रह जाते हैं। यह उद्गार उन्होंने शुक्रवार को भिक्षुविहार में दैनिक प्रवचन के दौरान व्यकत किए।
उन्होंने अवधिज्ञान को परिभाषित करते हुए कहा कि जो व्यक्ति समस्त कामनाओं से विरक्त हो जाता है और ध्यान-साधना की तरफ झुक जाता है। उसे इस तरह के ज्ञान की अनुभूति होती हैं। इस तरह की स्थिति आचार्य भिक्षु के जीवन के अंतिम समय में रही। उन्हें विशेष ज्ञान हुआ, जिसे आचार्य तुलसी ने अवधिज्ञान माना। इसलिए मनुष्य में ज्ञान भले ही न हो, लेकिन साधना के प्रति सदैव सचेत रहे। ज्ञान का विकास करे और विकारों को अपने आस पास नहीं आने दें। माया-मोह को मंद करे तो साधना व ज्ञान का विकास स्वतः ही हो जाएगा।
अतिकामना के परिणाम समाज के लिए घातक
उन्होंने कहा कि अतिकामना के परिणाम समाज के लिए घातक होते है। इससे पाप, अपराध और व्यसन में वृद्धि होती हैैं और ईमानदारी लुप्त हो जाती है। मन में हिंसा का प्रादुर्भाव हो जाता हैं। उन्होंने ईमानदारी के संदर्भ में चन्द्रगुप्त का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि जिस राष्ट्रª का प्रधानमंत्री ईमानदार, उज्जवल भविष्य वाला होता है तो उसकी जनता भी ईमानदारी पर विष्वास करती हैं। उन्होंने कहा कि मानव जाति मौत, कष्ट, वेदना और अवमामना से बहुत डरती है। यह हमारी दुर्बलता का परिचायक है। इस संदर्भ में मात्र सोचकर ही हम भयभीत हो जाते है। यह भय निरन्तर साधना और ध्यान करने से ही दूर हो सकता है। उन्होंने कहा कि आदमी चार कारणों से झूठ बोलता है। इससे उपकृत होने का सभी को प्रयास करना चाहिए। मोहकर्म का प्रभाव हमेशा बना रहे और इसी के आधार पर साधना चलनी चाहिए। इससे ज्ञान का विकास व बुद्धि का सम्मान होगा। जिसमें ज्ञान-ध्यान का समावेश नहीं होता वह व्यक्ति इस मायने में ष्वान की श्रेणी में आ जाता हैं। उन्होंने शिविरार्थियों और विद्यार्थियों को ज्ञान अर्जित करने की सीख देते हुए आहृान किया कि वे धर्म और साधना के प्रति गंभीर रहे।
स्याह में ढंूढे जीवन का प्रकाश
मंत्री मुनि सुमेरमल ने कहा कि व्यक्ति जितनी धर्म में प्रवृति करता है वह निवृति के लिए होती है। सभी धार्मिक दर्शनों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि पूरी उपासना और ज्ञानार्जन के बाद आत्मा की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है। व्यक्ति इसे तत्काल प्राप्त करने के लिए बाहरी परिप्रेक्ष्य में भटकता है, लेकिन उसे सभी ओर से असफलता मिलती है। उन्होंने कहा कि ज्ञान, ध्यान और अपेक्षानुसार तपस्या का भाव हो तो उस व्यक्ति को इसकी अनुभूति होती है। आदमी आंखे मंूदकर अनुभूति की चाह रखता है। प्रारंभ में अंधेरा दिखता है, लेकिन स्याह में उसे मार्ग को ढंूढने की जरुरत है। ज्यों-ज्यों ज्ञान मिलता जाएगा उसका जीवन प्रकाशमय हो जाएगा। उन्होंने महिला और पुरुषों को तत्व ज्ञान के विकास, जिज्ञासाएं बढाने और स्वयं का मार्ग ढंूढने का आहृान किया। गुजरात से आए वीबी चौहान ने कहा कि हमारी देह स्वस्थ है तो साधना पूरी की जा सकती हे। इसके लिए हमें मन को नियंत्रित करने की आवष्यकता हैं। संयोजन मुनि मोहजीत कुमार ने किया।
No comments:
Post a Comment