आचार्य महाश्रमण ने कहा कि जिस व्यक्ति में धर्मयुक्त और त्याग की भावना का समावेश होता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। धर्म की बजाय भौतिकता व कुछ पाने की लालसा का भाव जिसके मन में विद्यमान हो तो उसके आस-पास देवता भी नहीं आते। आचार्य बुधवार को केलवा में चल रहे चातुर्मास कार्यक्रम में श्रावक-श्राविकाओं के सम्मुख दैनिक प्रवचन दे रहे थे।
आचार्य ने संबोधि के तीसरे अध्याय में उल्लेखित चार गतियों का वर्णन करते हुए कहा कि अच्छा जीव तभी जी सकता है, जब वह बाहरी गतियों को दमन करें। देवता मनुष्यों के पास भी आ सकते हैं, लेकिन इसके लिए आवष्यक है कि वह धर्मयुक्त हो। जो साधक अल्प मात्रा में आहार ग्रहण करने, निद्रा पर संयम रखने और कम बोलने की क्षमता रखता हैं उसे भी देवता नमस्कार करते हैं और समय-समय पर धरती पर आते हैं। उन्होंने देवताओं के धरती पर आगमन के चार कारणों की व्याख्या करते हुए कहा कि देवता आमतौर पर मुमुक्षु आत्मा के दर्शन, तपस्वियों के दर्शन, कुटुम्बियों से मिलने और अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा करने के लिए साक्षात् भी दर्शन दे सकते हैं। यह प्रत्यक्ष रुप से कम वरन् अप्रत्यक्ष रुप से ज्यादा आसपास रहते हैं।
उन्होंने देवताओं के आगमन के लक्षण पर कहा कि इनका प्रतिबिम्ब कभी भी धरती पर प्रकट नहीं होता। इनके पांव हमेशा धरती से ऊंचे और अनिमेश की स्थिति बनी रहती हैं।
संबोधि में उल्लेख है कि रुखा-सूखा खाकर एकांत में निवास करने और इंद्रियों का दमन करने वाले साधक के समक्ष देवताओं का आगमन होता हैं। इन्हें लेकर मनुष्य को कभी आकांक्षा नहीं रखनी चाहिए, बल्कि धर्म-साधना में इतने तल्लीन हो जाना चाहिए कि देवता स्वतः ही उनके समक्ष किसी भी रुप में प्रकट हो जाए। उन्होंने देवताओं और मनुष्यों में समानता पर कहा कि दोनों के ही पांच इंद्रियां होती हैं। साथ ही कुछ असमानता भी होती है, जो नजर नहीं आती। इसे लेकर उन्होंने देवताओं के प्रकट होने का तथ्य भी प्रस्तुत किया। साथ ही कहा कि जिस साधक अथवा साधु में क्रोध और ’मैं’ की भावना आ जाती है तो वह अपनी साधना को कमजोर कर लेता हैं। इसलिए मन में कभी अपनी विशिष्टता का अहंकार नहीं लाएं। उन्होंने इस संबंध में धोबी और साधु के प्रसंग का वृतांत भी प्रस्तुत किया। साथ ही कहा कि संसार में देवताओं की अपेक्षा मनुष्यों की तादात् काफी कम हैैं। देवता समंदर है तो मनुष्य बंूद मात्र है। उन्होंने देश और प्रदेशभर के विभिन्न प्रांतों से आए श्रावक-श्राविकाओं से आहृान किया कि वे भौतिक लालसाओं के प्रति मोह त्यागकर अपने जीवन का कुछ समय धर्म और साधना को समर्पित करें। इससे न केवल उनका वरन् परिवार के अन्य सदस्यों का भी कल्याण होगा।
अच्छे कर्मों पर कायम रखें विष्वास
मंत्री मुनि सुमेरमल ने कर्मों के फल की व्याख्या करते हुए कहा कि आहृान किया कि मनुष्य को हमेशा अपने अच्छे कर्मों पर विष्वास करना होगा, ताकि कोई विकार उसके उद्देष्यों का डगमगा नहीं सके। हमें विकार को रोककर विकास की तरफ निरन्तर बढना होगा। क्यों कि जहां विकास होता है वहां विकार की संभावना ज्यादा बढ जाती है। इसके लिए जागरुक रहने की महत्ती आवष्यकता हैं। जो कर्म आसक्ति से परिपूर्ण होते है, इससे छुटकारा पाने के लिए अतिरिक्त पुरुषार्थ करना पडता है। मन को भीतर से जागरुक बनाना होगा। उन्होंने सम्यक भाव से धार्मिक कार्यों की क्रियान्विति करने का आहृान करते हुए कहा कि ऐसा करने से जीवन में सफलता मिलने की संभावना बढ जाएगी।
कार्यक्रम के दौरान कन्या मण्डल बोरज की बालिकाओं कुसुम और चंदा ने ‘ भिक्षुस्वामी संग तुम्हारा, सारे जहां से न्यारा, है यह सबको प्यारा, तुमने संवारा, तुमने निखारा गीत प्रस्तुत कर भाव विभोर कर दिया। संयोजन मुनि मोहजीत कमार ने किया।
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