केलवा में चातुर्मास
आचार्य महाश्रमण ने धर्म एवं साधना में तल्लीन श्रावक-श्राविकाओं से आहृान किया कि वह इस तरह की उपासना करें कि मोक्ष में जाने का लक्ष्य और मार्ग सहज ही उपलब्ध हो जाए। उन्हें मोहनीय कर्म से परे रहने की आवश्यकता है, क्यों कि कर्म क्षीण होने से चेतना प्रभावी होती है और कर्मशील होने की अवस्था में चेतना हृास हो जाती हैं। उन्होंने यह उद्गार यहां तेरापंथ समवसरण में चल रहे चातुर्मास में सोमवार को दैनिक प्रवचन के दौरान व्यक्त किए। आचार्य ने संबोधि के तीसरे अध्याय में वर्णित चेतना और शरीर के अंतर को परिभाषित करते हुए कहा कि दोनों के स्वरुप में भिन्नता है। चेतना जहां स्थायी व जीव है वहीं शरीर को अस्थायी माना गया है तथा इसे निर्जीव की संज्ञा दी गई हैं। व्यक्ति चेतनाशील है और शरीर-चेतना का परस्पर योग है। शरीर के बिना आदमी का जीवन नहीं है वहीं चेतना के बिना धर्म का संयोग नहीं बन पाता। उन्होंने कहा कि बच्चा जब गर्भ में आ जाता है तभी से मौत उसका पीछा करना शुरु कर देती है। यह पीछा उस समय तक चलता रहता है जब तक वह मौत मानवरुपी शरीर को दबोच न लें। मौत आने के संकेत से कभी भयभीत नहीं होना चाहिए। शरीर तो एक दिन जाना ही है। आत्मा अमर है। इसलिए मनुष्य को अपने जीवन का अधिकांश समय धर्म और साधना में लगाना चाहिए। साधु के मन में कभी आसक्ति के भाव का समावेश नहीं होता। वह कभी अपना पेट भरने के लिए रसोई का उपयोग नहीं करता। वह गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहे लोगों के द्वार पर भिक्षा लेता है और पेट की क्षुधा को शांत करता है। साधु को दान से महान निर्जरा का हेत करता है। द्वार पर भिक्षा के लिए आने वाले किसी साधु संत को इनकार नहीं करना चाहिए। यह भिक्षाजीवी होते है। साधु में त्याग, संयम, आराधना, उपासना की आवश्यकता को प्रतिपादित करते हुए उन्होंने उपासक प्रशिक्षण शिविर में ज्ञान का अर्जन कर रहे उपासक-उपासिकाओं से आहृान किया कि उनकी साधना सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए हो। उन्हें भौतिक लालसाओं से परे रहने की आदत डालनी होगी।
धार्मिक व्यक्ति बनता है तेजस्वी
मंत्री मुनि सुमेरमल ने धर्म को जीने की वस्तु की संज्ञा देते हुए उपासक वर्ग को दिए गए इस सूत्र को सभी के लिए उपयोगी बताया। साधु प्रतिदिन चौबीस घंटे ध्यान एवं उपासना में मग्न रहता है तो श्रावकों को भी चाहिए कि वे धर्म को जीने का उपक्रम बनाए। धार्मिक व प्रवचन स्थलों पर विशेषताओं को ग्रहण करें। इससे मन आसक्ति की ओर आत्कृष्ट नहीं होगा। समय व्यर्थ में व्यय करने, खींचतान, कलह और विवाद से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। धर्म साथ रहेगा तो दूसरे लोगों को भी इसकी प्रेरणा मिलती रहेगी। स्वयं का जीवन धर्ममय हो जाएगा तथा देवता भी उसके धर्म कार्य को नमन करेंगे। उन्होंने कहा कि धर्म, साधना, उपासना करने वाला व्यक्ति तेजस्वी बनता है। इससे संघ ओजस्वी बनेगा और समाज में आध्यात्मिकता का रस घुलेगा। संयोजन मुनि मोहजीत कुमार ने किया।
आत्म कल्याण का मार्ग है तत्वज्ञान
तेरापंथ युवक परिषद् की ओर से रविवार रात को आयोजित जैन विद्या कार्यशाला में आचार्य महाश्रमण ने कहा कि तत्वज्ञान आत्म कल्याण का मार्ग है। इसके ज्ञान से हम परमपद की प्राप्ति की ओर बढ सकते है। कार्यशाला में मुनि उदित कुमार ने तत्वज्ञान क्या और क्यों विषय पर प्रशिक्षण देते हुए कहा कि नौ तत्वों का ज्ञान होने से कर्म बंधन की की प्रक्रिया को सजाया जा सकता है। जिस क्रिया में कर्मों का बंधन होता है उससे बचने से भवक्रमण को कम किया जा सकता है। उन्होंने कर्मों को रोकने के लिए संवर करने की प्रेरणा दी एवं आत्मा के बंधे कर्मों को तोडने के लिए तपस्या, स्वाध्याय, ध्यान आदि प्रयोगों से निर्जरा करना जरूरी बताया। संचालन मुनि जयंत कुमार ने किया।
इधर प्रवचन तो उधर मेह की बरसात
कस्बे के तेरापंथ भिक्षु विहार में इन दिनों चल रहा आचार्य महाश्रमण के चातुर्मास प्रवचन में अजीब ही संयोग देखने को मिल रहा है। पिछले चार दिन प्रातःकाल के समय ज्योंहि आचार्य महाश्रमण के मुखवृंद से प्रवचन की धारा शुरू होती है कि प्रकृति भी प्रसन्न होकर मेघों की बरसात कर देती है। इस स्थिति को देखकर प्रदेश सहित मेवाड अंचल के विभिन्न गांवों से आने वाले श्रावक-श्राविकाएं यह कहने से नहीं चूक रही कि प्रवचन सुनकर जहां उनकी आत्मा का कल्याण हो रहा है। वहीं दूसरी ओर प्रकृति और मेहबाबा भी काफी प्रसन्न है। सोमवार को भी यहां सुबह प्रवचन समय शुरू हुई बरसात की झडी दिनभर लगी रही।
आचार्य महाश्रमण ने धर्म एवं साधना में तल्लीन श्रावक-श्राविकाओं से आहृान किया कि वह इस तरह की उपासना करें कि मोक्ष में जाने का लक्ष्य और मार्ग सहज ही उपलब्ध हो जाए। उन्हें मोहनीय कर्म से परे रहने की आवश्यकता है, क्यों कि कर्म क्षीण होने से चेतना प्रभावी होती है और कर्मशील होने की अवस्था में चेतना हृास हो जाती हैं। उन्होंने यह उद्गार यहां तेरापंथ समवसरण में चल रहे चातुर्मास में सोमवार को दैनिक प्रवचन के दौरान व्यक्त किए। आचार्य ने संबोधि के तीसरे अध्याय में वर्णित चेतना और शरीर के अंतर को परिभाषित करते हुए कहा कि दोनों के स्वरुप में भिन्नता है। चेतना जहां स्थायी व जीव है वहीं शरीर को अस्थायी माना गया है तथा इसे निर्जीव की संज्ञा दी गई हैं। व्यक्ति चेतनाशील है और शरीर-चेतना का परस्पर योग है। शरीर के बिना आदमी का जीवन नहीं है वहीं चेतना के बिना धर्म का संयोग नहीं बन पाता। उन्होंने कहा कि बच्चा जब गर्भ में आ जाता है तभी से मौत उसका पीछा करना शुरु कर देती है। यह पीछा उस समय तक चलता रहता है जब तक वह मौत मानवरुपी शरीर को दबोच न लें। मौत आने के संकेत से कभी भयभीत नहीं होना चाहिए। शरीर तो एक दिन जाना ही है। आत्मा अमर है। इसलिए मनुष्य को अपने जीवन का अधिकांश समय धर्म और साधना में लगाना चाहिए। साधु के मन में कभी आसक्ति के भाव का समावेश नहीं होता। वह कभी अपना पेट भरने के लिए रसोई का उपयोग नहीं करता। वह गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहे लोगों के द्वार पर भिक्षा लेता है और पेट की क्षुधा को शांत करता है। साधु को दान से महान निर्जरा का हेत करता है। द्वार पर भिक्षा के लिए आने वाले किसी साधु संत को इनकार नहीं करना चाहिए। यह भिक्षाजीवी होते है। साधु में त्याग, संयम, आराधना, उपासना की आवश्यकता को प्रतिपादित करते हुए उन्होंने उपासक प्रशिक्षण शिविर में ज्ञान का अर्जन कर रहे उपासक-उपासिकाओं से आहृान किया कि उनकी साधना सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए हो। उन्हें भौतिक लालसाओं से परे रहने की आदत डालनी होगी।
धार्मिक व्यक्ति बनता है तेजस्वी
मंत्री मुनि सुमेरमल ने धर्म को जीने की वस्तु की संज्ञा देते हुए उपासक वर्ग को दिए गए इस सूत्र को सभी के लिए उपयोगी बताया। साधु प्रतिदिन चौबीस घंटे ध्यान एवं उपासना में मग्न रहता है तो श्रावकों को भी चाहिए कि वे धर्म को जीने का उपक्रम बनाए। धार्मिक व प्रवचन स्थलों पर विशेषताओं को ग्रहण करें। इससे मन आसक्ति की ओर आत्कृष्ट नहीं होगा। समय व्यर्थ में व्यय करने, खींचतान, कलह और विवाद से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। धर्म साथ रहेगा तो दूसरे लोगों को भी इसकी प्रेरणा मिलती रहेगी। स्वयं का जीवन धर्ममय हो जाएगा तथा देवता भी उसके धर्म कार्य को नमन करेंगे। उन्होंने कहा कि धर्म, साधना, उपासना करने वाला व्यक्ति तेजस्वी बनता है। इससे संघ ओजस्वी बनेगा और समाज में आध्यात्मिकता का रस घुलेगा। संयोजन मुनि मोहजीत कुमार ने किया।
आत्म कल्याण का मार्ग है तत्वज्ञान
तेरापंथ युवक परिषद् की ओर से रविवार रात को आयोजित जैन विद्या कार्यशाला में आचार्य महाश्रमण ने कहा कि तत्वज्ञान आत्म कल्याण का मार्ग है। इसके ज्ञान से हम परमपद की प्राप्ति की ओर बढ सकते है। कार्यशाला में मुनि उदित कुमार ने तत्वज्ञान क्या और क्यों विषय पर प्रशिक्षण देते हुए कहा कि नौ तत्वों का ज्ञान होने से कर्म बंधन की की प्रक्रिया को सजाया जा सकता है। जिस क्रिया में कर्मों का बंधन होता है उससे बचने से भवक्रमण को कम किया जा सकता है। उन्होंने कर्मों को रोकने के लिए संवर करने की प्रेरणा दी एवं आत्मा के बंधे कर्मों को तोडने के लिए तपस्या, स्वाध्याय, ध्यान आदि प्रयोगों से निर्जरा करना जरूरी बताया। संचालन मुनि जयंत कुमार ने किया।
इधर प्रवचन तो उधर मेह की बरसात
कस्बे के तेरापंथ भिक्षु विहार में इन दिनों चल रहा आचार्य महाश्रमण के चातुर्मास प्रवचन में अजीब ही संयोग देखने को मिल रहा है। पिछले चार दिन प्रातःकाल के समय ज्योंहि आचार्य महाश्रमण के मुखवृंद से प्रवचन की धारा शुरू होती है कि प्रकृति भी प्रसन्न होकर मेघों की बरसात कर देती है। इस स्थिति को देखकर प्रदेश सहित मेवाड अंचल के विभिन्न गांवों से आने वाले श्रावक-श्राविकाएं यह कहने से नहीं चूक रही कि प्रवचन सुनकर जहां उनकी आत्मा का कल्याण हो रहा है। वहीं दूसरी ओर प्रकृति और मेहबाबा भी काफी प्रसन्न है। सोमवार को भी यहां सुबह प्रवचन समय शुरू हुई बरसात की झडी दिनभर लगी रही।
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