Thursday, April 22, 2010

बेहाल होती बावडियां

नाथद्वारा। वैष्णव नगरी की सांस्कृतिक पहचान में यहां की कुण्ड-बावडियों का विशेष महत्व रहा है। तकरीबन 350 वर्ष पुरानी इस धर्मनगरी में कई कुण्ड-बावडियां हैं किन्तु प्रशासनिक उदासीनता, जनभागीदारी केअभाव व उचित रखरखाव न होने से जलाशयों की स्थिति बदतर होती जा रही है। नगर की पहचान बने ये कुण्ड-बावडियां पुरातात्विक महत्व की तो हैं ही, नगरवासियों के लिए प्रमुख जल स्त्रोत के रूप में भी उपयोगी रही हैं।
धार्मिक भावनानगर भर में 70 से च्यादा कुएं-बावडियां तथा 8 कलात्मक कुण्ड निर्मित हुए जिनमें अहिल्याकुण्ड, सुन्दरविलास, कृष्णकुण्ड, गोवर्धनकुण्ड और व्यासकुण्ड, गोविन्दकुण्ड और मोहनकुण्ड की कलात्मकता व शैलीगत स्थापत्य बेहद दर्शनीय है। यही नहीं, तिलकायत प्रेरणा से कई वैष्णवजनों ने जलोपयोग के लिए कई बावडियां बनवाई किन्तु अब इन कुण्ड-बावडियों का कोई धणी धोरी नहीं है।
बुझ सकती है नगर की प्यासजल संकट के भीषण दौर में नगर के प्राचीन जलाशय बहुत बडा आसरा बन सकते हैं। अहिल्याकुण्ड, गोवर्धनकुण्ड व कृष्णकुण्ड का मलबा निकालकर वर्षाजल संग्रह किया जा सकता है तो सुन्दरविलास, मोहनकुण्ड व गोविन्दकुण्ड जल वितरण में सहयोगी बन सकते हैं। यही नहीं, नाथूवास व सिंहाड तालाब का योजनाबद्ध तरीके से रिसाव रोककर जल संकट की समस्या से निजात पाया जा सकता हैं। यही नहीं, नगर की सांस्कृतिक पहचान बनी इन बावडियों व कुण्डों की मौलिकता को संरक्षित कर नगर के सौन्दर्य में चार चांद लगाए जा सकते हैं।

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