Wednesday, August 3, 2011

कामनाओं से मुक्ति है उत्तम सुखः आचार्य महाश्रमण

आचार्य महाश्रमण ने भौतिक सुखों की कामना को दुःखों का प्रमुख कारण बताते हुए कहा कि पुण्य के द्वारा मुक्ति नहीं होती। पुण्य का स्वतंत्र वंध नहीं होता। अगर व्यक्ति में सुख प्राप्त करने करने की कामना है तो वह सुख को खोजते हुए चाहे- अनचाहे दुःखों को आमंत्रण देता है। जैसे-जैसे उत्तम तत्व का ज्ञान होता हे वैसे भोगों के प्रति अनावर्जन का पैदा हो जाता है। यह उद्गार उन्होंने तेरापंथ समवसरण में बुधवार को दैनिक प्रवचन के दौरान व्यक्त किए।
जो मनुष्य तप, आराधना, उपासना और ज्ञान अर्जन में तल्लीन रहता है और निर्जरा की दिशा में अग्रसर होता है उसे पुण्य का फल मिल सकता है। जिसमें निर्जरा नहीं तो उसे पुण्य की प्राप्ति नहीं होती। मनुष्य प्रायः पुण्य के बदले सुख की कामना करता है। वह सुख तो भोग लेता है, लेकिन विकारों को अपने जीवन में निमंत्रण दे देता है।
आचार्य ने काम और भोग को स्पष्ट करते हुए कहा कि दोनों का अनन्य संबंध है। चक्षु को जहां काम संज्ञा दी गई है, वहीं व्यसन को भोग के रूप में परिभाषित किया गया है। कामी इंन्द्रियां और भोगी इंद्रियां का अलग-अलग वर्णन है। जिह्ना के द्वारा मनुष्य स्वाद का आनंद उठाता है, जबकि चक्षु के द्वारा मात्र दूरी से भोग किया जा सकता है। पांच इंन्द्रियों के कारण जीवन में 240 विकार पैदा होने पर आचार्य ने कहा कि इनसे छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति को राग-द्वेष से परस्पर दूरी बनाने की आवश्यकता है। जीवन में भौतिक लालसाओं की कामना करोगे तो परम सुख प्राप्त नहीं होगा। मोक्ष के द्वार पर दस्तक देने के लिए भौतिक सुखों को त्यागने की आवश्यकता है।
बच्चे को दें अच्छे संस्कार
एक मां और बच्चे के बीच के वार्तालाप का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि बाल्यावस्था में ही अगर अपने बच्चे को भूत इत्यादि का भय दिखाकर डराने का प्रयास करोगे तो उसमें इसी तरह के संस्कार पैदा हो जाएंगे। उसमें विवेक की शून्यता आ जाएगी। बच्चे को प्रारंभ से ही अच्छे संस्कार देने की आवश्यकता है। उसे अभय बनाने की जरूरत है। इससे उसका भावी जीवन तो सुखमय बनेगा। साथ ही परिवार और समाज का आशातीत विकास हो सकेगा। आचार्य महाप्रज्ञ ने अपनी अहिंसा यात्रा के दौरान उल्लेख किया था कि अहिंसक चेतना और नैतिक मूल्यों के विकास के उद्ेदश्य से यह यात्रा निकाली जा रही है। नैतिक मूल्य भी परम पथ की ओर ले जाने वाला मार्ग बन सकता है। आचार्य ने अणुव्रत के संदेश को लेकर कहा कि ईमानदारी व प्रमाणीकता आवश्यक है। इसमें प्रमाणिकता नहीं होगी तो व्यक्ति को अविश्वास की दृष्टि से देखा जाएगा। हमारा विचार, आचार और व्यवहार अच्छा हो। भावों में शुद्धता होगी तो समस्याएं जीवन में आएगी ही नहीं। जिस तरह आदमी का भाव होगा उसी के अनुरुप वह कर्मों के बंधन में बंधता है। श्रावक-श्राविकाओं को चाहिए कि वे अच्छे कर्म करने में विश्वास करे। मन ही मनुष्य के बंधन और कर्मों को उजागर करता है। उसके कर्म इस बात को इंगित करते है कि मन के भाव क्या है ? इसलिए अच्छे भाव के नियंत्रण के लिए ध्यान और साधना की उपासना करने की आवश्यकता है। रागात्मक प्रवृति से द्वेष बढता है और इंद्रियां आसक्ति की ओर अग्रसर होती है। उन्होंने पाप के कारणों को परिभाषित करते हुए कहा कि मनुष्य के मन के भीतर विद्यमान लालसा उसे दुष्कर्म की ओर ले जाती है और उसमें विपरित कार्यों की क्रियान्विति करवाती है।
प्रतिकूलता से नहीं घबराएं
मंत्री मुनि सुमेरमल ने कहा कि मनुष्य जीवन उतार-चडाव का परिचायक है। इसमें अनुकूलता और प्रतिकूलता की स्थिति प्रायः बनती है। प्रतिकूलता को देखकर उससे घबराने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि हालात से सामना करने का प्रयास करें। प्रत्येक अंधेरे के बाद जीवन में प्रभात होता है। अनुकूलता को सहन करने की शक्ति है तो विपरित स्थितियों का भी बखूबी सामना करना चाहिए। उन्होंने उदारता को स्पष्ट करते हुए कहा कि जो हम सोचते है वैसा कर नहीं पाते और जैसा नहीं करना चाहते वैसा हमसे हो जाता है। यह मानव जीवन की प्रवृति है। धर्म को जीने की वस्तु की संज्ञा देते हुए उन्होंने कहा कि श्रावकों को चाहिए कि वे धर्म को जीने का उपक्रम बनाए। धार्मिक व प्रवचन स्थलों पर विशेषताओं को ग्रहण करें। इससे मन आसक्ति की ओर आत्कृष्ट नहीं होगा। समय व्यर्थ में व्यय करने, खींचतान, कलह और विवाद से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। धर्म साथ रहेगा तो दूसरे लोगों को भी इसकी प्रेरणा मिलती रहेगी। स्वयं का जीवन धर्ममय हो जाएगा। इस अवसर पर मुनि प्रसन्न कुमार ने भी विचार व्यक्त किए। संयोजन मुनि मोहजीत कुमार ने किया।
’ सौहार्द के लिए जरूरी है सहनशीलता ’
कस्बे के भिक्षु विहार स्थित तेरापंथ समवसरण में मंगलवार रात को शुरु हुए पारिवारिक सौहार्द शिविर में आचार्य महाश्रमण ने कहा कि परिवार में सहनशीलता होगी तो सौहार्द का वातावरण हमेशा बनी रहेगी। परिवार के सदस्यों में परस्पर प्रेम का भाव रहेगा तो किसी भी तरह की विपत्ति आने पर उसका आसानी से सामना किया जा सकेगा। साथ ही सद्भाव का विकास हो सकेगा। व्यवसाय की दृष्टि से अगर सदस्यों से अलग रहना पडे तो कुछ नहीं, लेकिन परिवार में विघटन की स्थिति उत्पन्न न हो। इस दिशा में ध्यान देने की आज के परिवेश में महत्ती आवश्यकता है। परिवार में सेवा भाव और त्याग की भावना से शांति और समृद्धि हो सकती है। प्रेक्षा प्राध्यापक मुनि किशनलाल ने शांति के सात सोपानों की चर्चा करते हुए बताया कि विश्वास, सहनशीलता, सापेक्षता, युवाग्राहकता, कृतज्ञ भाव परिवार में विकसित हो जाए तो सौहार्द आने आप आ जाएगा। डॉ. बजरंग जैन ने विषय की प्रस्तुति दी। मुनि नीरज कुमार ने गीत प्रस्तुत किया। संयोजन देवीलाल कोठारी ने किया।
जैन रामायण का वाचन 6 से
आचार्य महाश्रमण के सान्निध्य में 6 अगस्त को रात्रि साढे आठ बजे जैन रामायण का वाचन प्रारंभ होगा। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन पर प्रकाश डालने वाली इस रामायण का यह विशद विश्लेषण के साथ प्रतिदिन रात्रि को प्रस्तुत किया जाएगा। इस पर मंत्री मुनि सुमेरमल लाडनंू अपना प्रभावी विवेचन प्रस्तुत करेंगे।


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