Tuesday, August 9, 2011

पाप का क्षय करने की आवश्यकताः आचार्य महाश्रमण














आचार्य महाश्रमण ने कहा कि आज के परिवेश में सुख और दुःख दोनों का क्षय करने की आवश्यकता है। साथ ही इसमें यह प्रयास करना चाहिए कि पाप का अंत जल्द हो। यह जल्दी क्षीण हो गए तो सुख का अंत स्वतः ही हो जाएगा। व्यक्ति यदि इनके प्रति प्रयत्नशील बनेगा तो जीवन में नए परिवर्तन का अहसास होगा और उसे महाआनंद की प्राप्ति होगी।
आचार्य ने यह उद्गार यहां भिक्षु विहार स्थित तेरापंथ समवसरण में मंगलवार को दैनिक प्रवचन में व्यक्त किए। उन्होंने संबोधि के तीसरे अध्याय में उल्लेखित सुख और दुःख को स्पष्ट करते हुए कहा कि भौतिक सुखों का नाश होने पर आत्मानुभूति की प्राप्ति होती है और मनुष्य स्वयं अनुत्तर स्थान को प्राप्त हो जाता है। उन्होंने एक वृतांत प्रस्तुत करते हुए कहा कि नाम से कोई व्यक्ति अमर नहीं होता। यह नहीं है कि किसी का नाम लक्ष्मीचंद है तो वह धनवान होगा या किसी का नाम अमरसिंह है तो वह अमर हो गया। उसके कर्म अच्छे होंगे तो जीवन में सभी सुखों का समावेश अपने आप हो जाएगा।
वर्तमान पर चिंतन की जरूरत
आचार्य ने कहा कि वर्तमान परिवेश में भी मनुष्य मोक्ष या मुक्ति को प्राप्त हो सकता है। उसने मद और मदन का नाश कर दिया तो वह इसे प्राप्त कर सकता है। जो व्यक्ति विकारों से रहित, आशा लालसा से निवृत है उसके लिए यही मोक्ष है। संस्कृत में उल्लेखित जीवन मुक्त शब्द को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि मनुष्य को कभी अतीत का चिंतन नहीं करना चाहिए। भविष्य में क्या होगा। इसे लेकर अभी से ही विचार करने की आवश्यकता नहीं है। वर्तमान में क्या हो रहा है। इस पर चिंतन की जरूरत है।
मनुष्य की ओर से किए जाने वाले शुद्धकर्म से निर्जरा में वृद्धि होती है। पुण्य को बंधन बताते हुए उन्होंने कहा कि पुण्य के साथ पाप का भी प्रादुर्भाव होता है। इसलिए साधक को ध्यान और साधना करते समय इससे प्रायः बचना चाहिए। उसे कभी किसी वस्तु की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। शुद्ध मन से की गई साधना से फल की प्राति अवश्य होती है। साधना, ध्यान और आराधना की प्रक्रिया को सतत् रखने की आवश्यकता बताते हुए कहा कि एक ही क्रिया सघनता से करने से हमें आत्मानुभूति होती है। बाहरी और दिखावे के तौर पर की गई साधना से किसी तरह की फल की आशा करना बेमानी है। हम भीतर से अपने मन को ज्ञान रुपी खजाने से मजबूत बनाएंगे तो इसकी जीवन में श्रेष्ठ अनुभूति होगी।
उन्होंने श्रावक-श्राविकाओं से आहृान किया कि वे श्रेष्ठ संस्कारों को अपने जीवन में उतारकर सतत् धारा से उपासना करें और आगे बढे। उन्होंने कहा कि आज का काम कल पर छोडने की प्रवृति गलत है। किसी के लिए कल कभी आता ही नहीं है। कल की बात केवल तीन जने ही कर सकते है। पहली तो उसके पास जिसकी मौत से दोस्ती है। यदि उसे मौत आ जाए और वह उसे कह दें कि कुछ दिन ओर जीने दें। दूसरी उसे जो मौत की दौड से भी ज्यादा तेज भाग सकता है और तीसरी उसे जो यह सोचे कि मैं तो कभी मरने वाला ही नहीं हंू। यह तीनों संभव नहीं है। मौत तो हमारे जन्म से ही हमारा पीछा करना शुरू कर देती है। यह कभी किसी कि दोस्त नहीं होती और हम मौत को मात नहीं दे सकते। एक दिन तो हमें मौत आनी है। देवों का भी आयुष होता है। हालांकि उनका जीवन लंबा हो सकता है, लेकिन यह तय है कि उन्हें भी एक दिन मौत आनी है। उन्होंने कहा कि व्यक्ति को धर्म के प्रति तप और साधना करने की आवश्यकता है। वह माया मोह को त्यागें और स्वयं के साथ परिवार, समाज को उत्तरोतर प्रगति की ओर ले जाएं।
हर व्यक्ति पर परिवार का ऋण
मंत्री मुनि सुमेरमल ने कहा कि व्यक्ति जब जन्म लेता है तो उस पर परिवार के साथ समाज का भी ऋण हो जाता है। वह परिवार से बहुत कुछ सीखता है और समाज से प्राप्त करता है। इसलिए जीवन में कभी भी मनुष्य को ऐसा कर्म नहीं करना चाहिए कि परिवार या समाज पर विपरित असर पडे।
गलत काम, गलत उच्चारण और गलत संगति से कहीं समाज और परिवार में उसकी भर्त्सना न हो। कोई उसे घृणा भाव से नहीं देंखे। बहुत से मनुष्य स्वयं को चिंतन कर अपराध होने से बचा लेते है। समाज में स्वच्छ वातावरण बनाने की आवश्यकता है। ऐसे में देवता भी उसके घर में जन्म लेने का विचार कर सकते है। वे भी यह मनन कर सकेंगे कि परिवार का वातावरण धर्ममय होगा तो उनके संस्कार भी बचपन से ही अच्छे होंगे और धर्म के पथ पर चल सकेंगे। हिंसक परिवार में जन्म लेने से जीव हत्या के लिए किसी तरह का संकोच मन में नहीं आएगा। जैसा वातावरण व्यक्ति को मिलता है वैसा ही जीवन वह जीता है। इसलिए वह कोई भी कर्म करने से पहले इस बात पर विचार करें कि दूसरों पर इसका क्या प्रभाव पडेगा। स्वयं के साथ दूसरों को परेशान करने वाले कर्म करने से बचने की आवश्यकता है। उन्हें धर्म के प्रति हमेशा गंभीर और चिंतनशील रहना चाहिए। जिस व्यक्ति की मोह की चेतना कमजोर या क्षीण हो गई है वह स्वच्छ हैं। उन्होंने श्रावक-श्राविकाओं से आहृान किया कि वे आत्मिक क्रिया में सतत् प्रयत्नशील रहें। उनके ऐसा करने से समाज ही नहीं वरन् संसार भी तर हो जाएगा। संयोजन मुनि मोहजीत कुमार ने किया।

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