Monday, August 8, 2011

इंन्द्रियों पर संयम आवश्यकः आचार्य महाश्रमण


आचार्य महाश्रमण ने कहा कि वर्तमान परिवेश में मनुष्य को अपनी इंद्रियों पर संयम रखना होगा। यह संयमित नहीं होगी तो हमारा मन इधर-उधर भटकेगा और हम मूल पथ से दूर हो जाएंगे। हमारे विचार, आचार और व्यवहार अच्छे होने चाहिए। इससे मन में शुद्धता आएगी और समाज एवं स्वयं का विकास हो सकेगा। आज हमें स्पष्टवादी बनना भी आवश्यक हो गया है।
यह उद्गार आचार्य ने यहां तेरापंथ समवसरण में चल रहे चातुर्मास में सोमवार को दैनिक प्रवचन के दौरान व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि वाणी पर नियंत्रण से हमारे विचारों में शुद्धता आएगी। अच्छे विचार आचार का प्रादुर्भाव होगा और व्यवहार में आशातीत परिवर्तन का बोध होगा। संबोधि के तीसरे अध्याय में उल्लेख है कि पांच कर्मों में बंध हो सकता है। इसके लिए संयम रखने की आवश्यकता है। इससे कर्मों की निर्जरता हो सकती है। जिस तरह आदमी का भाव होगा उसी के अनुरुप वह कर्मों के बंधन में बंधता है। कर्म वह चेतना है जो आकर्षण को पैदा करता है। इसे दूर किया जाना चाहिए। उन्होंने तपस्या को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि मनुष्य को इसका पालन करने के लिए संयम बरतने की जरूरत है। इससे कर्मों की निर्जरा होगी। तपस्या हमें निर्मलता की ओर ले जाती है। हमारा स्वभाव निर्मल होगा तो परिवार में भी शांति की अनुभूति होगी। परिवार से समाज और समाज से देश आगे बढता है। इसलिए नैतिकता, संयमता, शालीनता और व्यवहार में मधुरता जीवन को सुन्दर
बनाती है।
आचार्य ने श्रावक-श्राविकाओं से आहृान किया कि वे नेक व अच्छे कर्म करने में विश्वास करे। मन ही मनुष्य के बंधन और कर्मों को उजागर करता है। जैसा भाव होगा, मनुष्य का कर्म भी उसी अनुरुप सामने आएगा। जन्म-मरण का चक्र हमेशा चलता रहता है। उन्होंने कहा कि नास्तिकवाद का सिद्धांत है शरीर और आत्मा। एक है आसक्तिवाद दोनों अलग-अलग है।
धर्म एवं साधना में वे वह इस तरह की उपासना करें कि मोक्ष में जाने का लक्ष्य और मार्ग सहज ही उपलब्ध हो जाए। चेतना और शरीर के अंतर को परिभाषित करते हुए कहा कि दोनों के स्वरुप में भिन्नता है। चेतना का स्थायी व शरीर को अस्थायी माना गया है। शरीर के बिना आदमी का जीवन नहीं है वहीं चेतना के बिना धर्म का संयोग नहीं बन पाता। उन्होंने कहा कि मनुष्य को सदैव अपने कर्मों पर विश्वास करना चाहिए। इसका फल उसे मिलेगा अथवा। इसे लेकर चिंतन करने की आवश्यकता नहीं है।
मंत्री मुनि सुमेरमल ने कहा कि जीवन में ज्ञान और साधना का समावेश है तो मनुष्य कई तरह की परेशानी से छुटकारा पा सकता है। धर्म, साधना, उपासना करने से समाज में आध्यात्मिकता का रस घुल सकेगा। उन्होंने कहा कि श्रेष्ठ संस्कारों को अपने जीवन में उतारने के लिए अनवरत उपासना करें और आगे बढे। संयोजन मुनि मोहजीत कुमार ने किया।
रामायण के शुभारंभ पर आचार्य महाश्रमण ने कहा
राम नाम परमात्मा का वाचक बन चुका है
केलवाः 8 अगस्त
आचार्य महाश्रमण के सान्निध्य में रात्रिकालीन कार्यक्रम में प्रतिदिन रामायण का वाचन प्रारंभ हुआ। शुभारंभ अवसर पर उन्होंने कहा कि राम नाम परमात्मा का वाचक बन चुका है। भगवान राम ने अपना आकोत्धान कर मोक्ष को प्राप्त हुए थे। उनके जीवन से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए। उन्होंने एक कवि की कल्पना पर चर्चा करते हुए कहा कि राम नाम का उच्चारण करते समय जब रा बोलते है तो होंठ खुल जाते है। इसका तात्पर्य है कि जो पाप भीतर थे। वे बाहर निकल गए और जब म का उच्चारण करते है तो होंठ बंद हो जाते है।। इसका तात्पर्य है कि फिर से पाप भीतर न जाएं। आचार्य ने रामायण ग्रंथ को रोचक और प्रेरणादायी बताया।
रामायण का प्रतिदिन वाचन करने वाले मंत्री मुनि सुमेरमल ने कहा कि रामायण का कालमान तीर्थंकर मुनि सुव्रत के समय का है। इस मौके पर उन्होंने रावण एवं राम के पूर्वजों के बारे में विस्तार से बताया।
साधु-साध्वियों की गीत गायन प्रतियोगिता 10 से
आचार्य महाश्रमण अमृत महोत्सव के अवसर पर साधु-साध्वियों की गीत गायन प्रतियोगिता का आयोजन 10 अगस्त से किया जाएगा। दो दिन तक चलने वाली यह प्रतियोगिता प्रतिदिन सुबह साढे आठ बजे से शुरु होगी। मुनि जितेन्द्र कुमार ने बताया कि इस प्रतियोगिता में केवल साधु-साध्वियां ही भाग ले सकेंगे। उनके द्वारा जिन गीतों की प्रस्तुतियां दी जाएगी वे तेरापंथ के आचार्यांे द्वारा रचित होना अनिवार्य है।

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