आचार्यश्री महाश्रमण ने श्रावक-श्राविकाओं से आहृान किया कि वे भौतिक सुखों को त्यागने की प्रवृति विकसित करें। आज उन्हें विभिन्न आसक्तियों ने अपने मोहपाश में बांध लिया है। इससे छुटकारा पाने के लिए धर्म, आराधना, तपस्या की ओर अपना ध्यान आकृष्ट करें। यह हमें परम सुखों की अनुभूति से पीछे की ओर धकेलती है। स्वाध्याय और ध्यान से भी सुख को प्राप्त किया जा सकता है। हमें दुःख के मूल पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। मूल तक जाने से ही समाधान मिल सकता है। दुःख को दूर करने के लिए उपाय पर ध्यान दिया जा सकता है।
आचार्यश्री ने यह उद्गार यहां तेरापंथ समवसरण में चल रहे चातुर्मास के दौरान मंगलवार को दैनिक प्रवचन में व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि मुक्त आत्माओं को जिस प्रकार का सुख मिलता है उस तरह के सुख की अनुभूति किसी व्यक्ति और देवों को भी नहीं होती। व्यक्ति अपनी इंन्द्रियों पर नियंत्रण कर लेता है तो वह विकास के पथ पर अग्रसर हो जाता है। अगर इंन्द्रियां उसके वश में नहीं रहती है तो वह पतन की ओर चला जाता है। हमारे विचार, आचार और व्यवहार अच्छे होने चाहिए। इससे मन में शुद्धता आएगी और समाज एवं स्वयं का विकास हो सकेगा। आचार्यश्री ने राग और द्वेष को आसक्ति का पर्याय बताते हुए कहा कि आदमी को चाहिए कि वह सुख और दुःख के मूल को समझने का प्रयास करें। अनाशक्ति में वीतरागता में सुख है पर बाहृय पदार्थों में नहीं हो सकता। पदार्थों की आसक्ति दुःख की ओर ले जाती है।
उन्होंने एक मां और बेटे का वृतांत प्रस्तुत करते हुए कहा कि हम अपने मूल को समझेंगे तो कभी परेशानियों का सामना नहीं करना पडेगा। आदमी को अपनी साधना का मूल्यांकन करना चाहिए। अध्यात्म की साधना करना हमें विशिष्टता का अहसास कराता है। इसे लेकर अपना-अपना दृष्टिकोण हो सकता है। अध्यात्म के आगे चिंतामणि रत्न भी फीका पड जाता है। राग द्वेष की भावना रखना हमें दुख की ओर धकेलता है। इससे दूर रहने के लिए संयम की साधना करने की आवश्यकता है। साधना के विकास की आवश्यकता जताते हुए उन्होंने कहा कि हम मूल लक्ष्यों की प्राप्ति में आगे बढते रहे। हमें यह जानने की जरूरत है कि अनाशक्ति की साधना में अभी क्या स्थिति है।
इसके लिए आत्म परीक्षण कर भीतर व्याप्त कषाय को दूर करना होगा। साथ ही निर्धारित आचार के प्रति जागरूक रहकर इसकी उपेक्षा से बचना होगा। हम अपने जीवन को ऊपरी तौर पर सींचित करेंगे तो मुरझा जाएंगे और मूल से संस्कारों को सीचेंगे तो परिवार और समाज का भी विकास कर सकेंगे।
श्रावक जीवन में आए 12 व्रत
आचार्यश्री ने श्रावक-श्राविकाओं से आहृान किया कि वे अपने जीवन में 12 व्रत अपनाने का प्रयास करें। इससे घबराने की आवश्यकता नहीं है। इस जन्म में किए गए व्रत का फल अगले जन्म में मिलता है। ग्रिहस्थ को भी कुछ अंशों में साधना करने की आवश्यकता है। इससे आत्मा का कल्याण हो सकेगा। संबोधि में भी इस बात का उल्लेख किया गया है कि परम् सुख वीतराग को प्राप्त होता है। दिखावे के तौर पर की जाने वाली साधना से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। वास्तविक साधना और आध्यात्म की आराधना से हम कषायों को मंद करते है। हमारी इंन्द्रियां शांत रहती है और हमें आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है। उन्होंने अगले माह आने वाले संवत्सरी महापर्व को लेकर कहा कि यह महापर्व हमारे जीवन में वर्षभर के दौरान जाने-अंजाने में होने वाली गल्तियों को सुधारने का दिन है। एक तरह से गं्रथियों को खोलने का अवसर हमें प्राप्त हो रहा है। इस दिन खमत खामना कर अपनी गल्तियों का शोधन करें और अगले वर्ष में अच्छा करने का प्रण लेकर जीवन मार्ग को प्रशस्त करें। जिस तरह से कपडे मैले हो जाते है और हम उन्हें साफ करने के लिए धोते है। उसी तरह से साधना के माध्यम से व्यक्ति को अपनी गल्तियों को धोने की आवश्यकता है। प्रतिक्रमण को भी उन्होंने मन में व्याप्त कषाय का धोने के उपक्रम की संज्ञा दी। उन्होंने शरीर सुख को प्रतिपादित करते हुए कहा कि यह बाहरी तौर पर दिखने वाली अनुभूति है। आत्मिक तौर पर अनुभव किया जाने वाला सुख हमें श्वाश्वत रुप से मिलता है।
अध्यात्म और व्यवहार अलग-अलग
मंत्री मुनि सुमेरमल ने आध्यात्म और व्यवहार को अलग-अलग रुप में प्रतिपादित करते हुए कहा कि अध्यात्म पर चलने वाला व्यक्ति जीवन को बाहर से समेटता है और व्यवहार के मार्ग पर चलने वाला बाहरी दुनियां के चकाचौंध को अपने जीवन में शामिल करने का प्रयास करता है। इस प्रवृति से उसे कुछ समय के लिए सुख की अनुभूति हो सकती है, लेकिन लंबे सुख के लिए हमें बाहर से नजर आने वाली दुनियां के क्रियाकलापों को त्यागने की आवश्यकता है। व्यक्ति अन्य लोगों अथवा दुनियां से उसके सम्मान में की जाने वाली प्रशंसा को सुनकर गदगद हो उठता है और उसी के अनुरूप अपने जीवन को ढालने का प्रयास करता है। एक तरह से वह दुनियां की कठपुतली बनकर रह जाता है। इससे सापेक्ष सुख की अनुभूति होती है। हम बाहर की दुनियां में जितना रहेंगे उतना ही अपने जीवन के विकास को अवरुद्ध करेंगे। आध्यात्म बाहरी क्रियाओं को समेटकर भीतर का विकास करता है। स्वयं की अनुभूति के लिए हमें इंद्रियों को शांत रखने की जरूरत है। इससे मन नहीं भटकेगा और परम सुख की अनुभूति होगी। व्यवहार में इतना न रचे कि हम आध्यात्म के सुख को ही भूल जाए। बाहर से हटेंगे तो भीतर देख पाएंगे। उन्होने श्रावक-श्राविकाओं से आहृान किया कि वे अपने जीवन को भौतिक सुखों से दूर रखने का प्रयास करें। बोलते समय अपनी वाणी पर संयम रखे। इससे व्यवहार में कमी नहीं बल्कि ओर अधिक प्रगाढता आएगी। इस मौके पर संस्कार सुगंध पत्रिका के अमृत महोत्सव विशेषांक को पत्रिका की संपादिका प्रभा जैन ने आचार्यश्री महाश्रमण को भेंट की। सुमित सांखला को 9 की तपस्या एवं हिनल सांखला को 8 की तपस्या का प्रत्याखान दिया। संचालन मुनि मोहजीत कुमार ने किया।
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