आचार्य महाश्रमण ने भारत सरीखे लोकतांत्रिक देश में अनुशासन और कर्तव्यनिष्ठा को आवश्यक बताते हुए कहा कि इसके अभाव में अच्छे प्रजातंत्र का सपना साकार करने में कठिनाईयां उत्पन्न हो सकती है और लोकतंत्र आहत होता है। अनुशासन और काम के प्रति जिम्मेदारी के बिना अनेक समस्याएं खडी होने की संभावना बढ जाती है। कर्तव्य और अनुशासन के बिना लोकतंत्र का देवता विनाश को प्राप्त हो जाता है। इसलिए जब अनुशासन भंग हो तो उस पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। यह उद्गार उन्होंने तेरापंथ समवसरण में गुरुवार को दैनिक प्रवचन के दौरान व्यक्त किए। उन्होंने एक वाकिये का उल्लेख करते हुए कहा कि केवल प्रजातंत्र ही नहीं वरन् सामाजिक संगठनों में भी अनुशासन रखना वांछनीय रहना चाहिए। अनुशासन की रूपरेखा नहीं बनेगी तो संगठन का ढांचा धराशायी हो सकता है। तेरापंथ में भी इस बात पर विशेष जोर दिया गया हैं कि अनुशासन ओर मर्यादाओं की पालना में कडे कदम उठाएं जाएं। यही बात परिवार पर भी लागू होती है। घर में इन बातों का पालन नहीं होगा तो प्रतिष्ठा धूमिल होने का खतरा बढ जाता है। इससे छुटकारा पाने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि मनुष्य निरन्तर धर्म की ओर अग्रसर रहे और व्यवहार में संयम बरते। संयम की साधना का पुट जीवन में होने से व्यक्ति सार्थकता को प्राप्त हो सकता है। निष्कर्मता की दिशा में आगे बढेंगे तथा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।
आचार्य ने जीवन में आने वाले शुभ योग को सीढियों की संज्ञा देते हुए कहा कि हम एक ही स्थान पर जमकर बैठ गए तो जहां है वहीं रह जाएंगे। आगे बढने के लिए ऊपर की ओर चलना होगा, तभी हमें श्वास्वत सत्य की मंजिल प्राप्त हो सकेगी। साधु-संत के मुखवृंद से प्रवाहित होनी वाली धार्मिक बातों का श्रवण कर उसमें से कुछ अंशों पर मनन करें तो जीवन की सार्थकता सिद्ध हो सकती है।
संयम नहीं तो उत्पन्न होंगे विकार
आचार्य ने संबोधि के तीसरे अध्याय में उल्लेखित कर्म के प्रभाव को परिभाषित करते हुए कहा कि आत्मा कर्म पुद्गलों का विकिरण करती रहती है। निष्कर्मता के द्वारा इसके प्रभाव को निरूद्ध किया जा सकता है। नए कर्म निरूद्ध हो जाते है तो पुराने कर्म स्वतः ही कमजोर होते है और आत्मा पूर्णतया मुक्त हो जाती है। जैन दर्शन के 14 गुणरधाणों की विवेचना करते हुए उन्होंने कहा कि इनका विकास मुख्यतया संबर के आधार पर होता है। इसलिए इनका हमारे जीवन में अत्यधिक महत्व है। आचार्य तुलसी के जैन सिद्धांत दीपिका ग्रंथ में भी संयम के प्रयास को उदधृत किया गया है।
जीवन में निरन्तर संयम, साधना नहीं होगी तो अनुशासन में विकारों की उत्पति हो सकती है। मन में संयम का भाव और आज के भौतिकतावादी परिवेश से परिपूर्ण जीवन को त्यागने की क्षमता मनुष्य में हो तो उसे मोक्ष मार्ग की प्राप्ति अवश्य होती है। एकाग्रचित्त होकर की गई साधना से भी मोक्ष मार्ग के द्वार स्वतः ही खुल जाते है। जिस मनुष्य के चित्त में निर्मल भाव नहीं हैं और जो वर्तमान जीवन के भौतिकता से भरे जीवन के सुख को छोड नहीं सकता। उसे मोक्ष मार्ग की प्राप्ति नहीं होती। इसके लिए मनुष्य को माया- मोह के परित्याग के साथ सांसारिक दलदल से दूर रहकर निर्मल भाव से ध्यान आराधना करनी होगी तभी उसका मानव जीवन सार्थक हो सकेगा।
’ क्रिया से पहले परिणाम का आंकलन करें ’
मंत्री मुनि सुमेरमल ने श्रद्धा और व्यवहार को परिभाषित करते हुए कहा कि श्रद्धा के चेतना से जुडा हुआ तत्व वहीं व्यवहार मनुष्य की क्रिया के साथ जुडा हुआ है। श्रद्धा शरीर के भीतर रहती है और बाहर व्यवहार ही नजर आता है। व्यवहार के आधार पर ही श्रद्धा का अंकन किया जाता है। कर्ममय व्यवहार से श्रद्धा मजबूत होती है। धर्म के मनकर्म का व्यवहार होता है तो वह धर्म की प्रभावना होती है। अन्यथा धार्मिक कहलाने वाले व्यक्ति का प्रतिकूल व्यवहार देखकर धर्म के प्रति अनास्था पैदा हो सकती है। आचरण विपरित होने से जहां धर्म की मजाक उडेगी वही श्रद्धा को ठेस पहुंचेगी।
उन्होंने श्रावक-श्राविकाओं से आहृान किया कि वे किसी भी तरह की क्रिया करने से पहले उसके परिणामों से भली भांति परिचित होने का प्रयास करें। धर्म और कर्म मिश्री का पर्याय है। हम अपने व्यवहार में शालीनता और संयम का समावेश रखेंगे तो हर कोई अपने से जुडने का प्रयास करेगा और अगर इसमें हम फिटकरी घोल देंगे तो संबंधों में कटुता आना शुरू हो जाएगी। उन्होंने कहा कि व्यक्ति मन के भीतर का भाव संयमित रखे। मंत्री मुनि ने महिलाओं से कहा कि घर में थोडा नुकसान होने पर आगबबूला होने की बजाय मन को शांत रखें और यह प्रयास करें कि भविष्य में इस तरह की त्रुटि किसी से न हो। घर-परिवार में सदस्य ज्यादा होते है तो स्वाभाविक है कि किसी न किसी से गल्ती हो जाती हे। इसे लेकर व्यवहार में कोई परिवर्तन न लाएं। कार्य ऐसा करें कि पीठ पीछे भी घर के सदस्य आपकी प्रशंसा करें। घर का वातावरण धर्ममय बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
दो तरह के होते है मौलिक रिश्तें ’
डॉ. बजरंग जैन ने कहा कि जीवन में मौलिक रिश्तें दो तरह के ही होते है। बाकी रिश्ते या तो स्वयं की ओर से बनाएं जाते है या फिर मनुष्य के जनम के साथ ही इनका बंधन शुरू हो जाता हैं। कस्बे के भिक्षु विहार स्थित तेरापंथ समवसरण में बुधवार रात को पारिवारिक सौहार्द शिविर में विषय की प्रस्तुति देते हुए डा. जैन ने इस बात पर गहरी चिंता जताई कि रिश्तें बनाना आसान है, लेकिन इसे निभाना बडा ही मुश्किल। आज से तीन-चार दशक पूर्व तक इक्का-दुक्का मामलों को छोडकर ऐसा कभी नहीं सुना जाता था कि अमुक परिवार की बहू ने अपने पति को तलाक दे दिया है या पति को साथ लेकर अपनी गृहस्थी ही अलग बसा ली है। अब तो स्थिति यह हो गई है कि हर दूसरे-तीसरे दिन इस तरह का मामला सामने आ ही जाता है। हम अपने मूलभूत रिश्तें भूलते जा रहे है। मुनि मोहजीत ने कैसे लाए रिश्तों में मिठास पर कहा कि व्यक्ति को व्यवहार में संयम बरतने की आवश्यकता है। आज की भागदौड भरी जिन्दगी में तनाव के क्षण पैदा हो सकते है, लेकिन इसे परिवार की ओर न आने दें। तभी घर-परिवार में सौहार्द की स्थिति बनी रह सकती है। प्रेक्षा प्राध्यापक मुनि किशनलाल ने जिज्ञासाओं का समाधान किया। मुनि नीरज कुमार ने अनुप्रेक्षा के प्रयोग की जानकारी दी। मुनि विजय कुमार ने गीत प्रस्तुत किया।
आचार्य ने जीवन में आने वाले शुभ योग को सीढियों की संज्ञा देते हुए कहा कि हम एक ही स्थान पर जमकर बैठ गए तो जहां है वहीं रह जाएंगे। आगे बढने के लिए ऊपर की ओर चलना होगा, तभी हमें श्वास्वत सत्य की मंजिल प्राप्त हो सकेगी। साधु-संत के मुखवृंद से प्रवाहित होनी वाली धार्मिक बातों का श्रवण कर उसमें से कुछ अंशों पर मनन करें तो जीवन की सार्थकता सिद्ध हो सकती है।
संयम नहीं तो उत्पन्न होंगे विकार
आचार्य ने संबोधि के तीसरे अध्याय में उल्लेखित कर्म के प्रभाव को परिभाषित करते हुए कहा कि आत्मा कर्म पुद्गलों का विकिरण करती रहती है। निष्कर्मता के द्वारा इसके प्रभाव को निरूद्ध किया जा सकता है। नए कर्म निरूद्ध हो जाते है तो पुराने कर्म स्वतः ही कमजोर होते है और आत्मा पूर्णतया मुक्त हो जाती है। जैन दर्शन के 14 गुणरधाणों की विवेचना करते हुए उन्होंने कहा कि इनका विकास मुख्यतया संबर के आधार पर होता है। इसलिए इनका हमारे जीवन में अत्यधिक महत्व है। आचार्य तुलसी के जैन सिद्धांत दीपिका ग्रंथ में भी संयम के प्रयास को उदधृत किया गया है।
जीवन में निरन्तर संयम, साधना नहीं होगी तो अनुशासन में विकारों की उत्पति हो सकती है। मन में संयम का भाव और आज के भौतिकतावादी परिवेश से परिपूर्ण जीवन को त्यागने की क्षमता मनुष्य में हो तो उसे मोक्ष मार्ग की प्राप्ति अवश्य होती है। एकाग्रचित्त होकर की गई साधना से भी मोक्ष मार्ग के द्वार स्वतः ही खुल जाते है। जिस मनुष्य के चित्त में निर्मल भाव नहीं हैं और जो वर्तमान जीवन के भौतिकता से भरे जीवन के सुख को छोड नहीं सकता। उसे मोक्ष मार्ग की प्राप्ति नहीं होती। इसके लिए मनुष्य को माया- मोह के परित्याग के साथ सांसारिक दलदल से दूर रहकर निर्मल भाव से ध्यान आराधना करनी होगी तभी उसका मानव जीवन सार्थक हो सकेगा।
’ क्रिया से पहले परिणाम का आंकलन करें ’
मंत्री मुनि सुमेरमल ने श्रद्धा और व्यवहार को परिभाषित करते हुए कहा कि श्रद्धा के चेतना से जुडा हुआ तत्व वहीं व्यवहार मनुष्य की क्रिया के साथ जुडा हुआ है। श्रद्धा शरीर के भीतर रहती है और बाहर व्यवहार ही नजर आता है। व्यवहार के आधार पर ही श्रद्धा का अंकन किया जाता है। कर्ममय व्यवहार से श्रद्धा मजबूत होती है। धर्म के मनकर्म का व्यवहार होता है तो वह धर्म की प्रभावना होती है। अन्यथा धार्मिक कहलाने वाले व्यक्ति का प्रतिकूल व्यवहार देखकर धर्म के प्रति अनास्था पैदा हो सकती है। आचरण विपरित होने से जहां धर्म की मजाक उडेगी वही श्रद्धा को ठेस पहुंचेगी।
उन्होंने श्रावक-श्राविकाओं से आहृान किया कि वे किसी भी तरह की क्रिया करने से पहले उसके परिणामों से भली भांति परिचित होने का प्रयास करें। धर्म और कर्म मिश्री का पर्याय है। हम अपने व्यवहार में शालीनता और संयम का समावेश रखेंगे तो हर कोई अपने से जुडने का प्रयास करेगा और अगर इसमें हम फिटकरी घोल देंगे तो संबंधों में कटुता आना शुरू हो जाएगी। उन्होंने कहा कि व्यक्ति मन के भीतर का भाव संयमित रखे। मंत्री मुनि ने महिलाओं से कहा कि घर में थोडा नुकसान होने पर आगबबूला होने की बजाय मन को शांत रखें और यह प्रयास करें कि भविष्य में इस तरह की त्रुटि किसी से न हो। घर-परिवार में सदस्य ज्यादा होते है तो स्वाभाविक है कि किसी न किसी से गल्ती हो जाती हे। इसे लेकर व्यवहार में कोई परिवर्तन न लाएं। कार्य ऐसा करें कि पीठ पीछे भी घर के सदस्य आपकी प्रशंसा करें। घर का वातावरण धर्ममय बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
दो तरह के होते है मौलिक रिश्तें ’
डॉ. बजरंग जैन ने कहा कि जीवन में मौलिक रिश्तें दो तरह के ही होते है। बाकी रिश्ते या तो स्वयं की ओर से बनाएं जाते है या फिर मनुष्य के जनम के साथ ही इनका बंधन शुरू हो जाता हैं। कस्बे के भिक्षु विहार स्थित तेरापंथ समवसरण में बुधवार रात को पारिवारिक सौहार्द शिविर में विषय की प्रस्तुति देते हुए डा. जैन ने इस बात पर गहरी चिंता जताई कि रिश्तें बनाना आसान है, लेकिन इसे निभाना बडा ही मुश्किल। आज से तीन-चार दशक पूर्व तक इक्का-दुक्का मामलों को छोडकर ऐसा कभी नहीं सुना जाता था कि अमुक परिवार की बहू ने अपने पति को तलाक दे दिया है या पति को साथ लेकर अपनी गृहस्थी ही अलग बसा ली है। अब तो स्थिति यह हो गई है कि हर दूसरे-तीसरे दिन इस तरह का मामला सामने आ ही जाता है। हम अपने मूलभूत रिश्तें भूलते जा रहे है। मुनि मोहजीत ने कैसे लाए रिश्तों में मिठास पर कहा कि व्यक्ति को व्यवहार में संयम बरतने की आवश्यकता है। आज की भागदौड भरी जिन्दगी में तनाव के क्षण पैदा हो सकते है, लेकिन इसे परिवार की ओर न आने दें। तभी घर-परिवार में सौहार्द की स्थिति बनी रह सकती है। प्रेक्षा प्राध्यापक मुनि किशनलाल ने जिज्ञासाओं का समाधान किया। मुनि नीरज कुमार ने अनुप्रेक्षा के प्रयोग की जानकारी दी। मुनि विजय कुमार ने गीत प्रस्तुत किया।
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