Saturday, August 27, 2011

सम्यक् ज्ञान सबसे बडा रत्नः आचार्यश्री महाश्रमण

तेरापंथ के 11वें अधिष्ठाता आचार्यश्री महाश्रमण ने सम्यक् ज्ञान को सभी रत्नों में सबसे बडा बताते हुए कहा कि पृथ्वी पर तीन रत्न माने गए है पानी, अन्न और संयमित वाणी, लेकिन सम्यक् हमें मोक्ष के मार्ग की ओर प्रशस्त करता है। सम्यक् दर्शन के सामने अन्य सभी रत्न तुच्छ है। हम जितनी धर्म की आराधना और उपासना करने में तल्लीन रहेंगे उतनी ही सम्यक् दर्शन की प्राप्ति होगी। अभी पर्युषण का समय चल रहा है। इन दिनों में जितनी साधना की जाए उतनी ही व्यक्ति के लिए अच्छी है। आचार्यश्री ने उक्त उद्गार शनिवार को यहां तेरापंथ समवसरण में पर्युषण महापर्व के दूसरे दिन स्वाध्याय दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में देश के विभिन्न हिस्सों से आए हजारों श्रावक-श्राविकाओं को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। उन्होंने भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा का वर्णन प्रस्तुत करते हुए कहा कि हम लागे जिस लोक में जीव का निर्वाह कर रहे है। वह जंबू द्वीप है। इस लोक में तीर्थंकर नहीं हो ऐसा नहीं हो सकता। 20 तीर्थंकर तो होंगे ही। इससे भी ज्यादा 170 तीर्थंकर हो सकते है। जैन वागडम में उल्ल्ेखित है कि जो व्यक्ति कर्माें से मुक्त होता है उसे निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है।
आचार्यश्री ने कहा कि सम्यक् दर्शन है तो सम्यक् ज्ञान है। यर्थाथ दृष्टि ही हमें सम्यक् दर्शन का बोध कराती है। जिसे ज्ञान और दर्शन प्राप्त नहीं होता उसे कर्मों से मुक्ति नहीं मिल सकती है। जो इनमें युक्त नहीं होता उसे मोक्ष का मार्ग प्रशस्त नहीं हो पाता। नव तत्व को परिभाषित करते हुए श्रावक-श्राविकाओं से आहृान किया कि वे इसका ज्ञान अर्जित करने का प्रयास करें। आत्म साधना, तप और संयम करने से भी सम्यक् की प्राप्ति की जा सकती है। इसके अलावा किसी के माध्यम से मिलने वाले ज्ञान से भी इसे प्राप्त किया जा सकता है। सांसारिक जगत में यदा कदा मिलने वाले धोखे को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि इससे व्यक्ति को कठिनाई होती है। वह प्राणांत तक भी पहुंच सकता है। उन्होंने एक वृतांत प्रस्तुत करते हुए कहा कि मार्ग में मिलने वाले साधुओं की सेवा अपने हाथों से करने की प्रवृति से भी आत्मा की अनुभूति का अहसास होता है। नवसार को साधुओं ने धर्म की बातें बताई। इन बातों को सुनकर उन्हें सम्यक की प्राप्ति हो गई। हालांकि उन्हें इसका बोध अल्प समय तक ही रहा, लेकिन ज्ञान मिल गया। परिमाणित भाव है तो व्यक्ति साधु का वेश धारण कर सकता है। वह सभी साधु-साध्वियों का नेता बन सकता है।
विशेष स्वाध्याय करने की आवश्यकता
आचार्यश्री ने स्वाध्याय दिवस की महत्ता को परिभाषित करते हुए कहा कि इसमें विशेष स्वाध्याय करने की आवश्यकता है। प्राचीन साहित्य में भी इस बात का उल्लेख मिलता है कि बारह प्रकार के तत्व उपदिष्ट है। स्वाध्याय करने से व्यक्ति को आलोक मिलता है। उसके अंधकारमय जीवन में प्रकाश फैलता है। इससे ज्ञान में अपेक्षाकृत वृद्धि होती है। उन्होंने कहा कि आचार्यश्री तुलसी ने अनेक साहित्यों को कंठस्थ कर अपने ज्ञान में आशातीत वृद्धि की थी। इसी क्रम में आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने भी साहित्यों को कंठस्थ किया। इसी परपंरा को आज साधु-साध्वी आगे बढाने में लगे हुए है। श्रावक-श्राविकाओं को भी चाहिए कि वे साहित्य को याद कर अपने ज्ञान की क्षमता को बढाएं। उत्तराध्यन का 29 वां अध्याय पठनीय है। प्रत्येक व्यक्ति को इसका पाठन करना चाहिए और हो सके तो
इसे याद करने का प्रयास करना चाहिए। पूरा होने के बाद इसका पुनरार्वतन करने की आवश्यकता है। उन्होंने 32 आगमों को पठनीय बताते हुए कहा कि स्वाध्याय करने से संयम और मन में निर्मलता का बोध होता है। जीवन में स्वाध्याय का प्रयास करने की आवश्यकता है। इस अवसर पर मंत्री मुनि सुमेरमल ने भी प्रवचन प्रस्तुत किया। आचार्यश्री के प्रवचन सुनने के लिए श्रावक-श्राविकाओं की भीड उमड रही है। पांडाल में सुबह स्थिति यह है कि लोगों को बैठने की जगह तक नहीं मिल रही है। मुनि किशनलाल ने संस्कार निर्माण प्रतियोगिता की जानकारी दी। संयोजन मुनि मोहजीत कुमार ने किया।

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