Friday, August 26, 2011

धर्म आराधना का श्रेष्ठ समय पर्युषण: आचार्यश्री महाश्रमण

आचार्यश्री महाश्रमण ने कहा कि पर्युषण का समय धर्म आराधना करने के लिए श्रेष्ठ है। इन आठ दिनों के दरम्यान श्रावक समाज विशेष रुप से साधना करने में तल्लीन रहें, ताकि विकृतियों को नाश हो सके। श्रावण-भादौ में विशेष रूप से धर्म की साधना करने की आवश्यकता है। इन दो माह में होने वाली धार्मिक क्रिया से मन के साथ शरीर को भी शुद्ध किया जा सकता है। पहला दिन खाद्य संयम दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। हमें अपनी उच्च साधना के लिए आहार पर नियंत्रण रखने की आवश्यकता है।
आचार्यश्री यहां तेरापंथ समवसरण में शुक्रवार को शुरू हुए पर्युषण महापर्व के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में देशभर से आए श्रावक-श्राविकाओं को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि हमारी धर्म आराधना का क्रम व्यवस्थित बना रहें।एकागचित्त होकर की गई साधना का फल प्राप्त करने के लिए हमें इसके प्रति सतर्क रहने की आवश्यकता है। संवत्सरी मूल पर्व है। इससे पहले सात दिन जोडे गए है। इसके पीछे किसी की भी भविष्य को देखकर कुछ भी मंशा रही हो, लेकिन जिसने भी पर्युषण पर्व मनाने का आगाज किया, वह साधुवाद का पात्र है। आचार्यश्री ने पर्युषण के दौरान प्रातःकालीन सत्र में शुरू हुए विभिन्न उपक्रमों की जानकारी देते हुए भगवान महावीर को नमन किया और महावीर के चरणों में श्रद्धा के पुष्प गीत का संगान कर अपने प्रवचन का शुभारंभ किया। उन्होंने कहा कि भगवान महावीर नाम नहीं अपितु एक आत्मा है। उन्होंने परमात्मा बनने के लिए न जाने कितने वर्षों तक धर्म की साधना की और मोक्ष को प्राप्त हुए और तीर्थंकर बन गए। उनका चरित्र हमें यह शिक्षा देता है कि व्यक्ति आत्मा की साधना करते करते परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। आत्मा कभी एक शरीर में नहीं टिकती। वह एक योनि का शरीर समाप्त होने पर दूसरे शरीर में समाहित हो जाती है। जन्म मरण का यह सिलसिला लंबे समय से चला आ रहा है।
सम्यकत्व की प्राप्ति महत्वपूर्ण
आचार्यश्री ने आत्मा में सम्यकत्व की प्राप्ति को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि हमारा जीवन यहीं तक सीमित होकर रहने वाला नहीं है। इसके आगे भी मोक्ष का मार्ग है। उसे प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को अपना अधिकांश समय संयम और साधना में लगाने की आवश्यकता है। यह अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने का मार्ग हमारे लिए प्रशस्त करता है। जीवन को अच्छा बनाने के लिए सम्यक् का ज्ञान होना आवश्यक है। यह हमारी आत्मा का शास्वश्त है। इससे आत्मज्ञान की प्राप्ति संभव होती है। यह पुस्तक अध्ययन या चलचित्र देखने से संभव नहीं बल्कि धर्म की आराधना, तप, साधना करने से संभव होती है। व्यक्ति को हमेशा धर्म मे रम जाना चाहिए। इसी से उसका कल्याण हो सकता है।
जीवन शैली को उजागर करता है पर्युषण महापर्व
साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा ने कहा कि जैन परपंरा में पर्युषण महापर्व एक महान पर्व के रूप में प्रख्यात है। इसका जैन परंपरा में क्या महत्व है। यह बताने की कतई आवश्यकता नहीं है, तथापि इतना अवश्य कह सकते है कि यह जैन समाज की जीवन शैली को उजागर करता है। इसके प्रारंभ होने से पहले ही जैनेत्तर लोग त्याग-तपस्या और संयम की चेतना जागृत करने में तल्लीन हो जाते है। उनकी जीवन शैली में अपेक्षित बदलाव आना शुरू हो जाता है। यह अच्छा संकेत है। एक तरह से यह कहना भी उचित होगा कि यह हमें रूपांतर की ओर ले जाता है। आचार्यश्री तुलसी ने भी इस पर्व को महापर्व की संज्ञा दी थी। यह सभी पर्वों का राजा है। बारह मास की प्रतीक्षा के बाद आने वाला यह महापर्व जैनेत्तर लोगांे में विशिष्ट स्थान रखता है।
साध्वी प्रमुखा ने कहा कि जैन शास्त्रों में चातुर्मास को पोशाक के रूप में परिभाषित किया जाता है, जबकि शेष आठ माह को अष्टांग माना जाता है। पर्युषण पर्व को आभूषण की संज्ञा दी गई है। साधु के लिए इसका बडा महत्व है। कालांतर में इसके प्रति केवल साधु-साध्वियां ही सजग रहते थे। अब स्थिति यह हो गई है कि श्रावक-श्राविकाएं भी इसे लेकर काफी गंभीर नजर आती है। श्रावक समाज के साथ कब से और क्यों इस तरह का गहरा संबंध बना। इस पर अनुसंधान करने की आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति में यंू तो अनेक पर्व मनाए जाते हैं कुछ भौतिकता से ओतप्रोत भी होते है। नाच गाना इत्यादि भी देखने को मिलता है, लेकिन पर्युषण ऐसा पर्व है जिसमें यह सब कुछ नहीं होता। यह अलौकिक है इसमें आराधना भी अलौकिक होती है। त्याग और प्रत्याखान का पर्व है। एक तरह से यह भी कहना उचित होगा कि यह धर्म के द्वार से प्रवेश कराने का मार्ग है। इससे शांति, मुक्ति, आर्जव और मार्डव की अनुभूति होती है। इसके प्रारंभ और वर्तमान स्वरूप में काफी अंतर आया है। इस पर गहन विचार करने की आवश्यकता है। इसे चातुर्मास की स्थापना का उपक्रम भी माना गया है।
उन्होंने कहा कि हम तो अध्यात्म के यात्री है। प्रायः देवी देवताओं और तीर्थस्थलों पर जाने का उपक्रम बना रहता है अभी केलवा में देखा कि श्रद्धालुओं को हुजूम सेंकडों किलोमीटर की यात्रा करते हुए जा रहा है। पूछने पर उन्होंने कहा कि रूणेचा जा रहे है। पर हमारा सफर इनसे कहीं अधिक लंबा है। हम बीज से बरगद का रूप अख्तियार करते हैं असत्य से सत्य, अंधकार से आलोक और मृत्यु से अमृत कलश सीखने की यात्रा करते है। श्रावक समाज के जुडने से यह जाहिर होता है कि इसका कितना महत्व है। चातुर्मास के तीन स्वरूपों की जानकारी देते हुए उन्होंने कहा कि यह तीन तरह के होते है। पहला जघन्य चातुर्मास जो 70 दिन का होता हैं दूसरा मध्यम जो चार माह और तीसरा उत्कृष्ठ जो छह माह का होता है। इनमें से पहले दो अक्सर देखने को मिलते है। तीसरा यदा-कदा ही होता है। इसके पीछे मूल कारण यह होता है कि कोई भी साधु-संत एक ही स्थान पर छह माह तक नहीं ठहरता। उन्होंने कहा कि शरीर ही ब्रह्नाण्ड है। इसमें सत्य के साथ ज्योति पर्व, अमृत पर्व निहित है। इसे खोजने की ओर कहीं जरूरत नहीं है। यह हमारी काया में ही विद्यमान है। इसे वहीं ढंूढने का प्रयास करने की आवश्यकता है।
मंत्री मुनि सुमरेमल ने कहा कि पर्युषण के दौरान विभिन्न विषयों पर चिंतन-मनन होगा और कई विषय हमारे सामने आएंगे। इसमें जैनागम भगवती का आना बहुत अच्छा माना गया है। इसमें जीवन चरित्र सहित अनेक विषयों की व्याख्या की गई है। इसमें प्रत्येक आगम का खजाना भरा पडा है। यह स्वयं में बहुत बडी है। 11 अंगों में से भगवती को पांचवा स्थान दिया गया है। वहीं 84 आगम प्राचीन ग्रंथों के रूप में स्वीकार किए गए है। इस अवसर पर सांयों का खेडा निवासी सरिता कोठारी की 11 की तपस्या, पुष्पा मादरेचा को 8 की तथा भाण निवासी शांताबाई को 6 की तपस्या का प्राख्यान दिया गया। संयोजन मुनि मोहजीत कुमार ने किया।
आचार्यश्री महाश्रमण ने कराया केशलोंच
तेरापंथ के 11वें अधिष्ठाता आचार्यश्री महाश्रमण ने प्रातः केशलोंच करवाया। बिना किसी आधुनिक उपकरण से हाथ से केशलांच करवाते देख श्रद्धालुओं से जयकारों से गगन गुंजायमान हो उठा। जैन धर्म में कष्ट सहिष्णुता की अनेक कसौटियों में एक केंशलोंच को निर्जरा के लिए माना जाता है। आचार्यश्री के लोचन के दौरान मुनिजनों ने सस्वर स्वाध्याय कर वातावरण को आध्यात्मिक बना दिया। लोंच के पश्चात् श्रद्धालुओं ने सुसवृच्छा की आर्यप्रवर के निर्जरा में सहभागिता के लिए स्वाध्याय की प्रेरणा दी।
जयाचार्य आध्यात्म वेत्ता पुरुष थे
आचार्यश्री महाश्रमण ने तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य जयाचार्य के निर्वाण दिवस का उल्लेख करते हुए कहा कि जयाचार्य अध्यात्म वेत्ता पुरुष थे। उन्होंने तेरापंथ के विकास में चार चांद लगाए। वे स्वाध्याय को ज्यादा महत्व देते थे। उनके द्वारा रचित लाखों राजस्थानी साधना को समृद्ध बना रहे है।

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