Monday, April 20, 2009

है और नहीं के विरोधाभाष में हम जी रहे हैं : मुनि संजय

राजसमन्द। धर्म और पुण्य की वर्तमान अवधारणा में विरोधाभाष है। जैसे धर्म से पुण्य नहीं होता है, धर्म के द्वारा पुण्य अपने आप होता है। इसलिए धर्म का फल प्रासंगिक बन जाता है। धर्म ध्यान करते-करते कषाय यानि क्रोध, मान, माया और लोभ क्षीण हो जाते हैं। उसमें निर्जरा अधिक होती है। प्रशस्त राग को छोडना बहुत मुश्किल है, आत्मानुशासन जागेगा और परानुशासन छुटेगा तभी मुक्ति संभव है। उक्त विचार मुनि संजय कुमार ने सोमवार को भिक्षु निलयम में श्रावक-श्राविकाआें को सम्बोधित करते हुए व्यक्त किए। उन्होने कहा दृष्य जगत जो दिखाई दे रहा है, जो शाश्वत नहीं है। नश्वर है, फिर भी उसके प्रति हमारा आकर्षण है। छुटता नहीं। है के प्रति कोई लगाव नहीं धर्म है। आत्मा है संयम संतोष में शांति है इसके प्रति आकर्षण लगाव नहीं। है के प्रति नहीं और नहीं के प्रति हमारा आकर्षण है इस विरोधाभाष को छोडे बिना सही दृष्टिकोण नहीं बन सकता। इस अवसर पर मुनि प्रकाश कुमार, मुनि रविन्द्र कुमार ने भी विचार व्यक्त किए। महिला मंडल अध्यक्ष श्रीमती लाड मेहता ने बताया कि श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ महिला मंडल की साप्ताहिक संगोष्ठी मंगलवार को किशोरनगर में मुनि संजय कुमार के सान्निध्य में आयोजित की जाएगी।

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