Friday, March 20, 2009

अपनो के हाथो ही बेसहारा है राजस्थानी भाषा

राजसमन्द। अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति के अग्रिम संगठन राजस्थानी चिंतन परिषद मोटयार परिषद, महिला परिषद आदि कई संगठन राजस्थान दिवस पर राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता नहीं मिलने पर रोष व्यक्त किया है। संगठन के पदाधिकारियों के अनुसार प्रदेश की मातृभाषा विश्व में अपनी अनूठी पहचान बनाई है वहीं देश के राजनेता राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता के प्रति गंभीर नहीं है।
हर वर्ष प्रदेश में 30 मार्च को राजस्थान दिवस बडे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। 30 मार्च 1949 को सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में इस प्रदेश की रियासतों का एकीकरण किया गया। आजादी से पूर्व यह प्रदेश राजपूताना कहलाता था। मेवाड, मारवाड, वागड, शेखावटी, हाडौती, ढूंढार नाम से इस प्रदेश में कई छोटी बडी रियासते थी एवं इनकी राजभाषा राजस्थानी थी एवं सभी रियासतों में जो बोलियां बोली जाती उनकों एक मानकर राजस्थानी भाषा के नाम से मान्यता लेनी थी किंतु एकीकरण के समय इस बात पर किसी का ध्यान नहीं गया। आजादी के बाद 60 वर्ष बीत चुके है। राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने के लिए सयि संगठनों ने भी समय-समपर अपनी बात सत्ताधीशों के समक्ष रखी लेकिन अब तक वहीं ढाक के तीन पात है।
राजस्थान के राजसमन्द जिला जो महाराणा प्रताप की कर्मस्थली हल्दीघाटी और मेराथन ऑफ मेवाड दिवेर का साक्षी है और भारत की आजादी के दौर में यहां के स्वतंत्रता सैनानियों ने अपनी ओर से कोई कसर नहीं रखी। इसी भूमि पर राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता के लिए गठित संगठन चिंतन परिषद अपनी महत्ती भूमिका का निर्वाह कर रहा है। चिंतन परिषद के राजेन्द्र सिंह चारण के अनुसार जब प्रदेश की सभी रियासतों को मिला कर राजस्थान का नव निर्माण हो सकता है तो तो प्रदेश की सभी भाषा को मिलाकर राजभाषा की मान्यता क्यो नहीं मिल सकती।

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